Saturday, December 31, 2011

बातचीत

ख्वाब पूरे नहीं होते , न होंगे , पर देखना ज़रूरी है - यह बात कल मुझसे मेरे किराये के घर के पीछे झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले ने इस बात पर कही जब मैंने पूछा-" आप इस बच्चे को पढने के लिए स्कूल क्यूँ नहीं भेजते ?", उसने आगे कहा -" साहब हमें दिन भर मजूरी करके २३० रुपये मिलते हैं,यहाँ हर रहने वाला लगभग इतना ही कमाता है| इसमें न तो तीन लोगों का पेट भरता है न शरीर ढकता है | पेट काटो तो साहेब शरीर ढकता है और शरीर की परवाह न करो तो पेट| इन्ही ज़रूरतों को पूरा करने में तो दिन निकल जाता है , स्कूल की पढ़ाई कहा इन्हें नसीब , और कभी सोच भी लें, हिम्मत कर भी लें तो कितने दिन! साहेब पिछले ६ साल में कमाई तो बढ़ी है पर महंगाई उससे भी तेज़ | हमें तो सपने भी देखने से डर लगता है , और आखिर करें तो क्या करें ? कल को कोई बिल्डर आएगा और हमारा पता - जो हमें भी नहीं पता वोह बदल जायेगा | कभी कभी सोचते है की वापस अपने गाँव लौट जायें | पर न तो वहां ज़मीन है न कोई कारोबार | ऊपर से जब रात को ठण्ड लगती है तो बस यही सोचते है की रात होती ही क्यों है ? इसके पैदा होने के पहले हमारी मिसेज़ दो चार घरों में काम करती थी तो कुछ पैसा मिलता था पर अब वोह भी बंद हो गया | हैरानी तब होती थी जब कभी मिसेज़ १०० रुपये बढ़ने की बात करती थी | साहेब लोग बड़े बड़े घरों में रहते है , बड़ा-२ टी-वी रखे हैं पर सिर्फ १०० रुपये बढ़ाने में १०० बार सोचते हैं , खैर छोड़िये | "
मैंने आगे सोहन लाल से कुछ भी बात नहीं की और घर की तरफ वापस लौट आया | पूरे रास्ते बस यही सोच रहा था की क्या हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं है की हम किसी भी तरह कुछ भी सहायता कर सकें ? कई बार तो मैंने भी कामवाली को १०० रुपये बढ़ाने में कई बार सोचा था | उस वक़्त आत्मग्लानी हो रही थी, उसकी हर बात जैसे जवाब मांग रही हो |मैं शायद अपना अतीत भूल चूका था ...

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