भटकता रहूँ मैं सदियों तक अनंंत व्योम में
अनंंत सीढिया हो और अनंंत पट हो हर तरफ
आंसू से सिन्धु भर जाये कोई
और इतनी साँसे की भर जाए नभ का प्रसार
यदि हो ,
मुझे अवलम्ब आशा की उस एक किरण का
जो छन कर पलकों से तुम्हारी
आती हो इस तमस सिन्धु में
पथिक मैं
और पंथ हो वह करुण कोमल भावना
जो बनाती है तुम्हारे मुख पटल पर
अभिव्यक्तियों की रहस्मयी सी अल्पना
और मेरा लक्ष्य हो ,बस वही चेहरा प्रिये
जो मेरी स्मृति में छाया है तेरा प्रतिबिम्ब बनकर
आज भी तुम ही मेरी हर कल्पना का सार हो
आज भी तुम ही से है संबल मेरा
कह रही हर सांस में आती हुई
स्मृति व्योम से क्षण मेघ की हर गर्जना
मैं मिटू या मील का पत्थर बनू
ज्ञान का सागर बनू या अल्प ज्ञानी नर बनू
जीत लूं यह विश्व सारा बन महान शूर मैं
या जा मिलूँ संघर्ष करता मैं समय की धुल में
नियति को वर कर बना लूं , हर दिवस अनुकूल मैं
मिटू हजारो बार , गिर कर मैं उठू
और फिर गिरू
पथ से विचलित नहीं होगा मेरा पग एक भी
तुम ही हो संगीत बन कर सांस में
तुम ही हो धड़कन बन कर पास में
शारीर को कम्पित करता तेरा ही एहसास है
पास है मेरे तू ,फिर भी नहीं पास है
कह रहा इस ह्रदय का हर एक स्पंदन
और मेरी साँसे बस यही पूछती हैं
"क्या मेरे आराध्य को स्वीकार है अर्पण मेरा ?
क्या मेरा प्रतिबिम्ब आएगा नज़र
पोछ के देखू अगर मैं ह्रदय का दर्पण तेरा ?"
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